दीपशिखा का भावपक्ष

महादेवी वर्मा छायावाद की एक ऐसी स्तम्भ है जिसे अगर छायावाद से निकाल दिया जाय तो छायावाद के अर्थो में टूटा हुआ बिखराव ही कहा जायेगा।छायावाद में प्रसाद, पंत और निराला के बाद एक ऐसा नाम है जिसे हम छायावाद की मीरा अर्थात महादेवी वर्मा के नाम से जाना जाता है.महादेवी वर्मा ने जिस तरह से छायावाद में सराहनीय योगदान दिया है उसके लिए हिंदी साहित्य उनका सदैव ऋणी रहेगा।
महादेवी वर्मा के कुल छ: गीत संग्रह प्रकाशित हुए है जो निम्न है-निहार ,रश्मि, नीरजा,सांध्यगीत, दीपशिखा, संधिनी।
महादेवी वर्मा ने स्वयं इस विषय पर लिखा था,"मार्ग चाहे जितना अभ्यस्त रहा, दिशा चाहे जितनी कुहराच्छत्र रही परंतु भटकने, दिग्भ्रान्त होने और चली हुई राह में पग- पग गिनकर पश्चाताप करते हुए लौटने का अभिशाप मुझे नही मिला है।"
               दीपशिखा महादेवी वर्मा का पाँचवा गीत संग्रह है, इस संग्रह में सन् 1936 ई० के बाद लिखे गये गीत संग्रहित है, नीरजा और सांध्यगीत में कवयित्री का जिस ज्वाला से परिचय हुआ था, वही ज्वाला दीपशिखा में उसके मत का एक अविच्छिन्न अंग बन गई है ,इसलिए कवयित्री में अटूट आत्मविश्वास आ गया है, अपने इसी विस्वास की ओर संकेत करते हुए कवयित्री ने लिखा है,"दीपशिखा में विस्वास का कोई कंपन नही है, नवीन प्रभात के वेतालिको के स्वर के साथ इसका स्थान रहे, ऐसी कामना नही पर रात की सघनता को इसकी लो झेल सके यह इच्छा स्वाभाविक रहेगी।
            दीपशिखा में 51 गीत संग्रहित है, इन गीतों की मूल भावना का विश्लेषण करते हुए डॉ नगेंद्र ने लिखा है,"दीपशिखा महादेवी वर्मा के अपने मन का प्रतिक है, इसमे फ़ारसी की समा की तरह इन्द्रिय वासना की दाहक ज्वाला नही है, वरन करूणा की स्निग्ध लो है जो मधुर-मधुर जलती हुई पृथ्वी की कण-कण के लिए आलोक वितरित करती है और इसे जलने के पीछे किसी अज्ञात प्रिय का संकेत है जो उसे असीम बल तथा अकंप विश्वास प्रदान करता है।"दीपशिखा का प्रतिकार्थ है-स्वयं मिटकर दुसरो के कष्टो को निवारण करने की भावना,जिस प्रकार दीप की शिखा स्वयं जलकर दुसरो को प्रकाश देती है, उसी प्रकार स्वयं मिटकर दुसरो को सुखी बनाने की भावना को क्रियान्वित करने के लिये अटुट विश्वास अपेक्षित है ,कवयित्री में इस प्रकार के विस्वास की कमी नही है वह इसी विस्वास के आधार पर जगत के कष्टों से जूझ जाने की क्षमता रखती है औऱ विस्वास भरे शब्दो मे कहती है-
               'सिंधु का उच्छ्वास धन है,
                तड़ित तम का विकल मन है
                भीत क्या नभ है व्यथा का,
                आँसुओ से सिक्त अंचल।
               ×   ×    ×   ×   ×   ×    ×
              दूसरी होगी कहानी,
              शून्य में जिसके मिटे स्वर, धुली में खोई निशानी।
इन सब उदाहरणों से स्पष्ट है कि दीपशिखा की कवयित्री में ये विस्वास सजग हो गया है जो प्रत्येक विरोध को चुनोती देता है।
             अकंप विश्वास के अतिरिक्त दीपशिखा में अन्य उदात्त भावो की भी अभिव्यक्ति हुई है, वे भाव है-जलने या मिटने का भाव, करुणा का भाव और अज्ञात प्रिय की स्वीकृति आदि।निरंतर जलने या मिटने का भाव कवयित्री का प्रिय भाव है, वरन् दीपशिखा का यही भाव मूल आधार माना जा सकता है, कवयित्री में यह भाव प्रारम्भ से ही है, दीपशिखा की रचना से पूर्व भी इन्होंने अपने मिटने के अधिकार की सुरक्षा की थी-
           "क्या अमरो का लोक मिलेगा तेरी करुणा का उपचार?
           रहने दो है देव अरे यह, मेरा मिटने का अधिकार।"

दीपशिखा में यही भाव इस रूप में व्यक्त हुआ है-
     यह मंदिर का दीप इसे नीरव जलने दो।
     रजत शंख घङियाल स्वर्ग-वंशी- विणा- स्वर ,
     गये आरती बेला की शत्त-शत लय से भर;
    जब था कल कंठो का मेला, विहँसे उथल तिमिर था खेला
    अब मंदिर में ईष्ट अकेला;
    इसे अजिर का शून्य गलाने को गलने दो।'
          करुणा का भाव महादेवी में प्रारम्भ से ही विद्यमान था।जिसे इन्होंने अपने पैतृक संस्कारो की देन माना है, जब दुख भाव का परिष्कार हो जाता है, तभी करुणा का भाव जन्म लेता है, महादेवी वर्मा ने अपने दुख को, अपनी वेदना को परिस्कृत करके एक बहोत ऊँचा एवं उदात्त भाव बना दिया है।इन्होंने अपनी वेदना को स्वयं तक सीमित न रखकर संसार मे बाट दिया है।फलतः दुसरो के दुख इनके अपने दुख बन गये है।,दुसरो की वेदना इनकी अपनी वेदना बन गयी है, इसलिए इसमें उस करूण भाव की उत्पत्ति हुई है जो
मनुष्यौ तक ही सीमित न रहकर छोटे-छोटे पक्षियों तक भी पहुँच गयी है।अतः इनकी कामना है कि इनके निरंतर जलते दीप से लघु विहंग भी लाभान्वित हो-
         पंथ न भूले एक पग भी, घर न खोये लघु विहंग भी
        स्निग्ध लौ की तूलिका से आँक सबकी छाह उज्जवल!
        दीप मेरे जल अकम्पित धूल अचंचल !
                 हिंदी आलोचकों में से अधिकांश आलोचको ने महादेवी के काव्य का मूल्यांकन करते हुए इनपे आछेप लगाया है कि इनके प्रियतम का स्वरूप स्पष्ट नही है, वरन् इनका कोई प्रियतम है ही नही, यह केवल एक मानसिक कल्पना है, जिसके कारण स्वयं कवयित्री भी प्रियतम के रूप स्वरूप से परिचित नही है।इस अपरिचय के कारण ही इनकी वेदना वास्तविक न होकर काल्पनिक है जो किसी भी वेदना काव्य के लिये वांछनीय नही है।महादेवी ने इस आछेप का सबल उत्तर प्रथम बार दीपशिखा में ही दिया है।ये लिखती है-
              ' जो ना प्रिय पहचान पाती।
               दौड़ती क्यों प्रति सिरा में व्यास विधुत सी तरल बन
              क्यों अचेतन रोम पाते चिर व्यथामय सजग जीवन?
              किसलिए हर सांस तम में सफल दीपक राग गाती?
              जो न प्रिय पहचान पाती।'
                    वस्तुतः दीपशिखा की प्रेरक अनुभूति छाह सी सुक्ष्म और मोम सी मृदुल तो है, पर हुक -सी तीब्र नही है ।डॉ नगेन्द्र ने दीपशिखा का मूल्यांकन करते हुए लिखा है-"निहार से लेकर दीपशिखा तक आते-आते महादेवी जी की अनुभूति ने सुक्ष्मता और स्थिरता में जितनी वृद्धि की है तीब्रता में उतनी क्षति भी भोगी है।इसका अर्थ यही है कि महादेवी जी का मन क्रमशः व्यक्तिगत पीड़ा को लोकव्यापी बनाता हुआ दुःख और सुख का सामंजस्य स्थापित करता रहा है....... सांध्यगीत।जहा दुःख और सुख का सामंजस्य पूर्ण हुआ था, वहा दीपशिखा में दुख और दरसन खो कर सुख को समर्पण कर बैठा है।"
          अंत मे कहा जा सकता है कि भाव और कला दोनो दृष्टियों से दीपशिखा कवयित्री की प्रौढ़ रचना है।

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